वर्ष १९६२-६३ में मैंने अचानक स्लेट पर कुछ लोकगीत-भजन की पंक्तियाँ लिखी ! मेरे माता-पिता को लोकगीतों से बड़ा प्यार था और मेरी माताजी (बबुना देवी) अक्सर घर पर ही भजन संध्या का आयोजन करती रहती थी ! चुकी मै गा सकता था इसलिये वे कभी कभी मुझसे कोई भजन गाने को कहती थी ! कहरवा, कजरी,देढ़ताला, कवित्त आदि अवधी लोकगीत की परंपरा वे समझती थी, जानती थी और बेहद पसंद करती थी. बस उन्ही की खुशी के लिए मैंने कुछ गीत लिखे जो एक से बढकर एक , उन्हें पसंद आये और उन्होंने गर्व से उन्हें बाबूजी (मेरे पिता) को भी सुनवाए ! एक के बाद एक लिखते करीब ३०-३५ कवित्त, कहरवा, भजन आदि मैंने बना डाले और आश्चर्य , ये सब के सब कुल लगभग बीस दिन में ही हो गया ! उन सबको उन्होंने इकत्र कर १० पन्नों की एक पुस्तिका आपने नाम, बबुना , से छपाने का संकल्प लिया (जो पूरा न हो सका) ! १९६३ के अंत में मेरे बाबूजी के देहांत होने के बाद वह संकलन विस्मृति के गर्भ में चला गया, अथवा, अन्य लोकगीतों की तरह लोकार्पित हो गया ! मेरे कुछ सुहृद ने उने सहेज के रखा -- पूरा का पूरा नहीं -- बस उनता, जितना उन्हें पसंद आया ! मेरे अनुज, "मनीष", ने मुझे आपने पास इकत्रित स्फुट गीत फोटोकापी करा के दिए और कहा की उन्हें ब्लॉग में पोस्ट कर दूँ! बस ! प्रस्तुत ब्लॉग का यही उद्देश्य है और विधेय भी ! कुछ अन्य कृतियाँ भी इसी में है- जो स्लेट लेखन वाली परंपरा के नहीं है, नितांत व्यक्तिगत है, वो भी परोसने का इरादा है ! कुछ प्रतिक्रिया मिले तो आगे का पथ प्रशस्त हो ! अतः आप की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी; अस्तु !
सुमिरिनी
(दोहा)
सुमिरि राम हनुमान सिव, संकर सुँ गनेस !
रचहु भजन ठुमरी कृपा,स्वीकृत करहु महेस !१!
अधम तन औ मूढ मन,ता पर करहु नमामि तवं !
त्वदीय वस्तु गोविन्दम, तुमर्मेव समर्पियामी !२!
तीरथराज प्रयागपुर कराहू प्रकाशित गीत !
दासी "बबुना " निरगुना, हे राधा के मीत !३!
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मनई कै चोला
(कवित्त)
मनई क चोला दई काया क झोला दई,
लोला दई लाल लाल कब ले नचाईबा तू !
करनी नहीं हमरे, तो तुहरहू दरेग नाही
नोन-तेल-लकड़ी में कबतक नचयिबा तू !
भक्ति नाही सक्ति नाही बुद्धि नाही हाल खस्ती
जबरदस्ती भजबै हम, कहा ले बचयिबा तू !
गोहरयिब हम दिन रतिया देखी लेब तुहार सनवा
कनवा में डारि तेल, कब ले मठेथबा तू !!
मनई क चोला दई काया क झोला दई,
लोला दई लाल लाल कब ले नचाईबा तू !
करनी नहीं हमरे, तो तुहरहू दरेग नाही
नोन-तेल-लकड़ी में कबतक नचयिबा तू !
भक्ति नाही सक्ति नाही बुद्धि नाही हाल खस्ती
जबरदस्ती भजबै हम, कहा ले बचयिबा तू !
गोहरयिब हम दिन रतिया देखी लेब तुहार सनवा
कनवा में डारि तेल, कब ले मठेथबा तू !!
----- सतीशचंद्र, इलाहबाद, ऊ.प्र.भारत, नवंबर १९६३
क्रमशः
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